अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यम् च।।
समस्त देवता देवी के सनमुख प्रकट हुए और नम्रता से पूछने लगे ! "हे महादेवी तुम कौन हो।" देवी ने उत्तर दिया ! "मैं ब्रह्मा स्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति, समस्त पुरुष तथा असद्रूप और सद्रूप जगत उत्पन्न हुआ हैं।
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्।।
मैं ही आनंद तथा अनानन्दरूपा हूँ, विज्ञान और अविज्ञान मैं हूँ, जानने योग्य ब्रह्म और अब्राहम भी मैं ही हूँ, पांच महा भूतों से और बिना पांच भूतों से निर्मित तत्व भी मैं ही हूँ। यह समस्त दृष्टि गोचर जगत भी मैं ही हूँ।
वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम्। अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्।।
वेद और अवेद, विद्या और अविद्या, अजा और अनजा, निचे और ऊपर, अगल और बगल सभी ओर मैं ही हूँ।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि। अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ।।
मैं ही रुद्रों तथा वसुओं के रूप में संचार करती हूँ, मैं आदित्यों और विश्वेदेवो के रूपों में विद्यमान हूँ, मैं मित्र और वरुण दोनों का, इंद्रा एवं अग्नि का और दोनों अश्विनी कुमारों का भरण पोषण करती हूँ।
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि।।
मैं सोम, त्वष्टा, पूषा तथा भाग को धारण करती हूँ, तीनों लोकों को आक्रांत करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मा और प्रजापतियों को धारण करती हूँ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।।
देवताओं को उत्तम हवि पहुंचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमानों के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं संपूर्ण जगत की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्म रूपा और यज्ञ होमो में प्रधान हूँ।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। य एवम् वेद। स देवीं सम्पदमाप्नोति।।
मैं आत्म स्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्म स्वरूप को धारण करने वाली बुद्धि वृति में है। जो इस प्रकार जनता हैं, देवी संपत्ति लाभ करता हैं।
देवी आद्या शक्ति, नाना स्वरूपों में अवतरित हो, संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त तत्वों में विद्यमान हैं। इनके अनगिनत अवतारी रूप हैं, त्रि-देवों के रूप में ब्रह्मा, विष्णु तथा भगवान शिव हैं तथा त्रि-देवियों या महा देवियों से स्वरूप में ये ही महा काली, महा लक्ष्मी, महा सरस्वती हैं। महाविद्याओं, के रूप में ये ही १० महाविद्या, काली, तारा, श्री विद्या त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी छिन्नमस्ता, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी तथा कमला हैं। नव दुर्गा के रूप में ये ही शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिद्धिदात्री हैं। समस्त योगिनियां, जो पार्वती की सहचरियां या सहेलियां हैं, भगवान विष्णु की योगमाया शक्ति के रूप में देवी ही महामाया या योगमाया नाम से विख्यात हैं। जब भी इस संसार के सञ्चालन हेतु देवताओं को संकट का सामना करना पड़ा है, तब-तब इन्हीं देवी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अवतरित हो, देवताओं की सहायता की तथा उन्हें संकट मुक्त किया। असुर जो सर्वदा ही स्वर्ग लोक के राज्य को प्राप्त कर, नाना प्रकार के दिव्य भोगो को भोगने की अभिलाषा रखते थे, ब्रह्मा तथा शिव की कठोर तपस्या कर, उन से कोई वर प्राप्त कर लेते थे। असुर-दैत्य, स्वर्ग पर आक्रमण कर स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लेते थे तथा समस्त देवताओं के भागों को स्वयं भोगते थे। एसी परिस्थिति में देवताओं को इधर-उधर भटकना पड़ता था तथा स्वर्ग लोक के समस्त भोगो को असुर ही भोगते थे। जब-जब देवताओं के सनमुख, इस प्रकार की विपरीत परिस्थिति प्रस्तुत हुई, इन्हीं आद्या शक्ति देवी अपने नाना अवतारों में अवतरित हो, समस्त दानवों को युद्ध में परास्त किया तथा देवताओं को भय मुक्त कर उन्हें उनके पद पर पुनः अधिष्ठित किया।
सर्वप्रथम भगवान विष्णु जब मधु और कैटभ से ५००० वर्ष तक युद्ध करते हुए थक गए, उन्होंने सहायता हेतु आद्या शक्ति की आराधना की। फल स्वरूप आद्या शक्ति प्रकट हुई, और उन्होंने भगवान विष्णु से कहा की मैं इन्हें अपनी माया से मोहित कर दूंगी, तब आप इनका वध कर देना। देवी आद्या शक्ति से मोहित हुए ये दोनों महा दैत्यों ने भगवान विष्णु को आशीर्वाद दिया की, जहाँ न जल हो और न ही भूमि, ऐसे स्थान में उन का वध करें। उस समय प्रलय पश्चात सर्वत्र जल ही जल व्याप्त था, भगवान विष्णु ने अपनी जंघा पर उन महा दैत्यों का सर रख कर अपने सुदर्शन चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया। दैत्य राज महिषासुर, शुम्भ-निशुम्भ, रक्तबीज इत्यादि, समस्त दैत्यों का देवी ही अपने बल तथा पराक्रम से वध कर, देवताओं को भय मुक्त किया। जब-जब देवताओं पर विपत्ति या संकट उपस्थित हुआ, सभी देवों ने मिल कर इन्हीं आद्या शक्ति की आराधना-स्तुति, वन्दना की, तथा इन्हीं शक्ति ने अपने तेजो बल पराक्रम से समस्त संसार को भय मुक्त किया। इन के मुख्य नमो में दुर्गा, तथा काली नाम सर्वाधिक प्रचलित हैं। दुर्गमासुर नाम के दैत्य का वध करने के कारण इन देवी,दुर्गा नाम से विख्यात हुई, साथ ही दुर्गम संकटों से मुक्ति हेतु भी जगत-प्रसिद्ध हुई। सांसारिक कष्टों ने निवारण हेतु, दुर्गम संकटों से मुक्त करने वाली दुर्गा, के शरण में जाना सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैं।
वास्तव में शक्ति ही, सञ्चालन, निर्माण तथा विध्वंस का प्रतीक हैं, शक्ति या बल के अभाव में स्थिति शून्य ही रहेगी। आद्या शक्ति ही वह बल या कहे तो प्रेरणा का श्रोत हैं, जिनसे इस चराचर जगत के सुचारु सञ्चालन का कार्य पूर्ण होता हैं। सूर्य से प्रकाश, हवा का वहन, बादल द्वारा जल वर्षा, प्रकृति में घटित होने वाली सभी जैविक तथा अ-जैविक क्रियाएं शक्ति के अभाव में अस्तित्व में नहीं रह सकती हैं। हिन्दू शास्त्र, तंत्रों के अनुसार पत्नी को शक्ति का पद प्राप्त है, अर्थात पुरुष की शक्ति उसकी पत्नी ही हैं। चराचर संपूर्ण जगत की जन्म प्रदाता होने के परिणाम स्वरूप माता के रूप में पूजिता हैं। जीवन की उत्पत्ति तथा विकास, हर चरण मातृ शक्ति द्वारा ही परिचालित है, परिणाम स्वरूप शक्ति संसार में सर्वोपरि है।
श्वेताश्वेत उपनिषद के अनुसार देवी आद्या शक्ति स्वयं त्रि-शक्ति के रूप में अवतरित हुई हैं। आद्या शक्ति, एक होते हुए भी, लोक कल्याण के अनुरूप, भिन्न-भिन्न रूपों में अवतरित हो, ज्ञान, बल तथा क्रिया रूपी शक्तियों से अवतरित होकर महा-काली, महा-लक्ष्मी तथा महा-सरस्वती रूप धारण करती हैं। परिणाम स्वरूप देवी त्रि-शक्ति, नव-दुर्गा, दस महाविद्या तथा ऐसे अन्य अनेक अवतारी नामों से पूजिता हैं।
देवी भागवत पुराण के अनुसार, एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा जी पूछा कि! "सम्पूर्ण ब्राह्मण का आविर्भाव कैसे हुआ तथा इस चराचर जगत का परम परमेश्वर कौन हैं ?" ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया कि! "इस प्रश्न का उत्तर देना भगवान विष्णु के लिये भी संभव नहीं हैं, जल प्रलय के पश्चात, उन्होंने अपने आप को एक कमल पुष्प में आविर्भाव हुआ देखा, तदनंतर कमल के आदि तथा अंत न पाने में असमर्थ उन्होंने आकाश-वाणी के अनुसार मैंने तपस्या की। मधु तथा कैटभ नामक दो महा-दैत्यों द्वारा प्रताड़ित होने पर, भगवान विष्णु उनकी सहायतार्थ प्रकट हुए। उन्होंने मेरी रक्षा हेतु दैत्य भ्राताओं से पाँच हजार वर्ष तक युद्ध किया, परन्तु विजय न प्राप्त कर सकें। तदनंतर, उन्होंने आदि शक्ति की स्तुति की तथा उनकी सहायता प्राप्त कर मधु तथा कैटभ का वध किया। दैत्यों के मृत्यु के पश्चात भगवान शिव का प्राकट्य हुआ। वास्तव में भगवान विष्णु के अन्तः करण की शक्ति आद्या शक्ति महामाया, योगमाया हैं, उन्हीं से प्रेरित होकर वे दुष्टों का संहार कर तीनों लोकों का पालन करते हैं। तदनंतर, हम तीनों को सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्यभार स्वयं भगवती आदि शक्ति द्वारा प्रदान किया गया। परन्तु शक्ति हीन होने के कारण, हम तीनों के मन में नाना प्रकार के शंका का उदय हुआ। तदनंतर, शंका निवारण तथा शक्ति प्रदान हेतु आदि शक्ति माता हम तीनों देवों को अपने रमणीय निवास स्थल या लोक में ले गई।"
पूर्व काल में राजा सुरथ ने महर्षि मेधा से आदि शक्ति महामाया (आद्या शक्ति) के सम्बन्ध में ज्ञात कर, शक्ति-साधन की थी तथा अपने साम्राज्य को पुनः प्राप्त किया था।
राजा सुरथ महान बल तथा पराक्रम से सम्पन्न थे! वे धर्मानुसार प्रजा का भली भाँति पालन करते थे तथा इंद्र के समान तेजस्वी थे। एक बार अन्य विरोधी राजाओं ने मिल-कर उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया, जिसमें उनकी पराजय हुई; तदनंतर वे सर्व-त्याग कर गहन वन में चले गए। घूमते-घूमते राजा सुरथ! मेधा ऋषि के आश्रम में पहुँचें, वहाँ पर उन्होंने एक अद्भुत दृश्य देखा! "सिंह-बाघ इत्यादि हिंसक जीव अन्य अल्प शक्ति संपन्न पशुओं जैसे गाय, हिरण इत्यादि को पीड़ा नहीं देते थे।" राजा सुरथ! वही मेधा मुनि की आश्रम में रहने लगे, परन्तु उनका मन अपने पराजित राज्य की ओर सदा ही लगा रहता था। एक दिन आश्रम में एक वैश्य आया, वह भी बहुत दुखी था। वैश्य ने राजा सुरथ से कहा! "मैं धनी कुल में उत्पन्न हुआ वैश्य हूँ, परन्तु मेरे पुत्र तथा स्त्री ने धन के लोभ से मुझे घर से निकल दिया, परिणामस्वरूप में बहुत दुखी हूँ, साथ ही में अन्य सुहृदों का भी कुशल समाचार नहीं जान पता हूँ।"
राजा सुरथ ने वैश्य से कहा! "जिन दुराचारियों ने धन के लोभ से तुम्हें घर से निकल दिया, तुम उनके प्रति मोह क्यों कर रहे हो?" वैश्य ने उत्तर दिया! "राजन! आप ठीक कहाँ रहे हैं, परन्तु यह मुझे ज्ञात नहीं हैं की मैं क्यों मोह पाश में बंधता जा रहा हूँ।" मोह पाश में पड़े हुए दोनों मेधा मुनि के पास गए तथा उनसे इसका कारण पूछा?
मेधा मुनि ने उत्तर दिया! "राजन! सनातन शक्ति महामाया आदि शक्ति ही सबके मन को खींच कर मोह में डाल देती हैं। उन्हीं की माया से मोहित होने के परिणामस्वरूप, आप दोनों की मानसिक स्थिति ऐसी हैं, ब्रह्मा आदि समस्त देवता भी उनके परम-तत्व को नहीं जान पाते हैं तो मनुष्यों की बात ही क्या हैं? वे परमेश्वरी आदि शक्ति ही सत्व, रज तथा तम गुणों का आश्रय लेकर, इस चराचर ब्रह्माण्ड के समस्त जीवित तथा अजीवित तत्वों का सृष्टि, पालन तथा संहार करती हैं। देवी की कृपा के बिना, मोह के घेरे कोई नहीं लाँघ पाता हैं। तदनंतर, राजा सुरथ ने महामाया आदि शक्ति के बारे में पूछा! की वे कौन हैं? तथा उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ?"
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बल पूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति ‘महा-माया या योगमाया’ हैं, इन्हीं की शक्ति से संपन्न होकर भगवान श्री हरी जनार्दन विष्णु नाना प्रकार के उत्पातों का विनाश करते हैं। कल्प के आदि में दैत्य मधु तथा कैटभ के संहार हेतु भगवान विष्णु ने इन्हीं आदि शक्ति की सहायता ली थीं। जिसके परिणामस्वरूप दैत्यों की बुद्धि भ्रमित हो गई तथा भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से मधु तथा कैटभ का संहार किया।
कल्प के आदि में महा-प्रलय उपस्थित होने पर भगवान विष्णु ने प्रलय स्तंभन हेतु इन्हीं आदि शक्ति की सहायता ली थीं। भगवान द्वारा निवेदन पर ‘देवी बगलामुखी’ ने प्रलय को शांत किया था या प्रलय का स्तंभन किया था।
एक समय जब सम्पूर्ण जगत एकार्णवके जल में डूबा हुआ था तथा भगवान श्री हरी विष्णु शेष नाग की शय्या पर योग-निद्रा मग्न थे; उनके कान के मेल से दो बलशाली असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ नाम से प्रसिद्ध हुए। वे दोनों अत्यंत बलशाली, विशाल काया युक्त, घोर प्रलय के समान थे तथा ऐसे प्रतीत होते थे जैसे वे सम्पूर्ण जगत को खा लेंगे। उन दोनों भाइयों ने भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न, कमल पर विराजमान ब्रह्मा जी को मार डालने का प्रयास किया। ब्रह्मा जी ने देखा कि! जनार्दन भगवान श्री विष्णु योग-निद्रा मग्न हैं, तब उन्होंने उनकी योगमाया शक्ति, महामाया (भगवान विष्णु के योग-निद्रा मग्न रहने पर उनसे उदित होती हैं) का स्तवन किया तथा उनसे प्रार्थना की! "आप इन दोनों दुर्जय असुरों को मोहित करें तथा भगवान विष्णु को योग-निद्रा से जगा दें।" इस प्रकार मधु और कैटभ से अपनी रक्षा हेतु, ब्रह्मा जी के द्वारा प्रार्थना करने पर सम्पूर्ण विद्याओं की अधिश्वरी देवी ने फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को त्रैलोक्य मोहिनी शक्ति रूप में अवतार धारण किया तथा काली के नाम से विख्यात हुई। तदनंतर आकाशवाणी हुई! "कमलासन डरो मत, युद्ध में मधु-कैटभ को मार कर में तुम्हारी रक्षा करूँगी।" ऐसा कहकर, वे महामाया शक्ति श्री विष्णु के नेत्र, मुख से निकल कर ब्रह्मा जी के सनमुख आ खड़ी हुई। तदनंतर, भगवान जनार्दन योग-निद्रा त्याग कर जग उठे तथा अपने सनमुख खड़े दोनों महा दैत्यों को देखा। भगवान विष्णु, दोनों दैत्य-भ्राताओं के संग ५ हजार वर्षों तक युद्ध करते रहें, अंततः वे थक गए। मधु और कैटभ एक-एक कर युद्ध करते थे, तथापि जब एक भाई युद्ध करता तो दूसरा विश्राम कर लेता था। परिस्थिति देखकर कुछ क्षण हेतु भगवान विष्णु विश्राम करने लगे, इस अवधि में उन्होंने सहायतार्थ महामाया-स्तवन किया तथा उनसे उन दोनों भाईयों के वध का कोई उपाय करने का निवेदन किया। आदि शक्ति महामाया ने भगवान विष्णु को सलाह दी कि! "मैं उन दोनों भ्राताओं के बुद्धि को भ्रम में डाल दूंगी, तब आप उन दैत्यों से आपके हाथों से मारे जाने का वर मांग लेना।" तदनंतर, आदि शक्ति महामाया ने दोनों की बुद्धि को भ्रमित कर दिया, दोनों भाई भगवान विष्णु से कहने लगे कि! "वे दोनों उनके पराक्रम से बहुत संतुष्ट हैं, वे उन दोनों से इच्छित वर मांग ले।" भगवान विष्णु ने उन दोनों दैत्यों से कहा! "अगर तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथों मारे जाओ, तुम दोनों मुझे यह वर प्रदान करो, मुझे और दूसरा वर नहीं चाहिये।"
तदनंतर, दोनों भाइयों ने देखा सारी पृथ्वी जल में निमग्न हैं, तब वे भगवान विष्णु से बोले! "हम दोनों को ऐसी जगह मारो, जहाँ पृथ्वी जल में भीगी हुई न हों।" बहुत अच्छा कहकर भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपने जंघा पर रखा तथा अपने सुदर्शन चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया। इस प्रकार भगवान श्री हरी विष्णु की योग माया शक्ति! काली ही मधु-कैटभ के वध का कारण बनी।
भगवान विष्णु के योगमाया शक्ति ने ही काली ने ही अप्रत्यक्ष रूप से मधु-कैटभ का वध किया, देवी ही साक्षात शिव पत्नी सती-पार्वती हैं, आदि शक्ति हैं।
सुरथ मुनि कहते हैं, राजन! रम्भ नाम से एक प्रसिद्ध असुर हुआ करता था, उससे महा-तेजस्वी महिष नमक दानव का जन्म हुआ। दानव-राज महिष ने समस्त देवताओं को युद्ध में पराजित कर, स्वर्ग से निकाल दिया तथा स्वयं इन्द्रासन पर जा बैठा; स्वर्ग लोक में रह कर तीनों लोकों में राज्य करने लगा। पराजित हुए सभी देवता ब्रह्मा जी के पास गए तथा उनसे सलाह-परामर्श कर सभी देवता एकत्र होकर उस स्थान पर गए! जहाँ भगवान शिव तथा भगवान विष्णु विराजमान थे। वहाँ पहुँच कर समस्त देवताओं ने भगवान शिव तथा भगवान विष्णु को नमस्कार कर, अपनी दुर्दशा का सारा वृत्तांत सुनाया। उस समय सभी देवता मर्त्यलोक में भटक रहे थे, कुछ ने पर्वतों की कंदराओं में शरण लिया था। समस्त देवता जैसे सूर्य, चन्द्रमा, वरुण, कुबेर, यम, इंद्र, अग्नि, वायु, गंधर्व इत्यादि के स्वाभाविक कर्म, महिषासुर स्वयं ही कर रहा था। समस्त देवताओ ने भगवान शिव तथा भगवान विष्णु से उनकी रक्षा तथा महिष के वध का उपाय शीघ्र ही करने का निवेदन किया। महिषासुर ब्रह्म प्रदत्त वर के अभिमान से चूर था, उसने ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या कर किसी नारी या स्त्री के हाथों से मृत्यु वर प्राप्त किया था।
देवताओं की समस्त बात सुनकर भगवान शिव तथा विष्णु ने अत्यंत क्रोध किया और क्रोध के कारण उनके नेत्र घूमने लगे। अत्यंत क्रोध में भरे हुए शिव-विष्णु के मुख तथा अन्य सभी उपस्थित देवताओं के शरीर से, एक-एक कर तेज पुंज प्रकट हुआ तथा तेज का वह महान पुंज, अत्यंत प्रज्वलित हो दसों दिशाओं में प्रकाशित हो उठा। उस तेज पुंज का मुख भगवान शिव के तेज से, केश यम-राज के तेज से, दोनों स्तन चन्द्रमा के तेज से, कटिभाग इंद्र के तेज से, जंघा और ऊरू वरुण के तेज से, नितम्ब पृथ्वी के तेज से, दोनों चरण ब्रह्मा जी के तेज से, पैरो की उँगुलियाँ सूर्य के तेज से, नासिका कुबेर के तेज से, दांत प्रजापति के तेज से, तीनों नेत्र अग्नि के तेज से, दोनों भौहे साध्यगण के तेज से, दोनों कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए। वह तेज पुंज तदनंतर एक दिव्य स्त्री के रूप में परिणति हो गया।
इसी प्रकार समस्त देवताओं के तेज से आविर्भाव हुई देवी लक्ष्मी ही वह परमेश्वरी शक्ति थी। उन्हें देख समस्त देवताओं के प्रसन्नता का कोई ठिकाना ही नहीं रहा, परन्तु देवी अस्त्र-शस्त्र विहीन थीं। तदनंतर, ब्रह्मा आदि देवताओं ने देवी को अस्त्र इत्यादि प्रदान किया! भगवान विष्णु ने 'चक्र', वरुण ने 'पाश', अग्निदेव ने 'शक्ति', वायु देव ने 'धनुष तथा बाण', देवराज इंद्र ने 'घंटा', यम-राज ने 'काल-दंड', प्रजापति ने 'अक्षरमाला', ब्रह्मा जी ने 'कमंडल', सूर्य देव ने अपनी 'किरणों' को देवी के रोम कूपों में भर दिया, काल ने 'ढाल तथा तलवार', क्षीर-सागर ने 'सुन्दर हार, नाना प्रकार के आभूषण तथा पुराने न होने वाले दो वस्त्र' प्रदान किये। विश्वकर्मा ने 'फरसा', अनेक प्रकार के 'अस्त्र तथा अभेद्य कवच', समुद्र ने 'माला तथा कमल पुष्प', हिमवान ने सवारी के लिये 'सिंह', कुबेर ने 'मधु से भरा पात्र, शेष जी ने 'नाग हार' प्रदान कर देवी का यथोचित सम्मान किया। तत्पश्चात देवी ने भयंकर गर्जना की जिसकी ध्वनि से आकाश भी गूँज उठा; सभी देवताओं ने लक्ष्मी स्वरूपा देवी का स्तवन किया; महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी आराधना की, परिणामस्वरूप देवी कात्यायनी नाम से विख्यात हुई।
देवी द्वारा किये गए घोर गर्जन सुनकर महिषासुर, ने उस गर्जन की ओर अपने दूत को भेजा। उस स्थान पर पहुँचकर दैत्य-राज के दूतों ने अस्त्र-शस्त्र धारण किये हुए युद्ध हेतु उद्धत एक दिव्य नारी को देखा, जो अपनी दिव्य आभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थी। दूतों ने जाकर दैत्य-पति को दिव्य नारी के सम्बन्ध में अवगत कराया; जिससे उसके मन में उस दिव्य नारी से विवाह की इच्छा जागृत हुई। महिषासुर ने अपने महावीर योद्धाओं को देवी के पास संदेश देकर भेजा, परन्तु देवी केवल युद्ध ही करना चाहती थीं। तदनंतर, दैत्य-पति ने चिक्षुर, चामर, उदग्र, कराल, उद्धत, बाष्कल, ताम्र, उग्रविर्य, अन्धक, दुर्धर, दुर्मुख, महाहनु, त्रिनेत्र जैसे महान बलशाली योद्धाओं को देवी से युद्ध करने हेतु भेजा। देवी तथा दैत्यों के समूह के बीच घनघोर युद्ध हुआ, जिसमें सभी दैत्य वीर एक-एक कर मारे गए, अंततः महिषासुर, देवी के साथ मायायुद्ध करने लगा। इस घनघोर युद्ध में देवी द्वारा दैत्य-पति महिषासुर मारा गया तथा दैत्यराज की समस्त सेना भाग खड़ी हुई। तदनंतर देवी महिषासुरमर्दिनी नाम से विख्यात हुई, इन्हें ही देवी मह-लक्ष्मी नाम से जाना जाता हैं।
पूर्व काल की बात हैं, शुम्भ तथा निशुम्भ नाम के दो भाई बहुत बलशाली प्रतापी दैत्य थे। अपने अपार बल के मद-अभिमान से चूर हो दोनों भाइयों ने त्रिलोक के राज्य पर आक्रमण किया तथा देवताओं को परास्त कर उन्हें अमरावती पुरी से निकाल दिया। तदनंतर, समस्त देवताओं ने हिमालय पर जाकर शरण लिया एवं सर्व मनोकामना पूर्ण करने वाली देवी का स्तवन किया। (देवताओं द्वारा किये हुए स्तवन अनुसार! देवी दुर्गा तीनों लोकों की रक्षा, मोक्ष प्रदान, उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार करने वाली हैं। काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्री विद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगलामुखी, धूमावती, त्रिपुरसुन्दरी, मातंगी, अजिता, विजया, जया, मंगला, विलासिनी, अपराजिता, घोर आकर धारण करने वाली, महाविद्या, शरणागतों का पालन करने वाली रुद्राणी, परमात्मा, अनन्तकोटि ब्रह्मांडों का सञ्चालन करने वाली देवी कहा गया हैं।)
इस प्रकार, देवताओं की स्तुति करने पर गौरी देवी या पार्वती अत्यंत प्रसन्न हुई, उन्होंने देवताओं से पूछा! "आप लोग किसकी स्तुति कर रहे हैं?" तक्षण ही वहां पर देखते ही देखते शिवा देवी के शरीर से एक कुमारी कन्या का प्राकट्य हुआ तथा वे कहने लगी! "यह सभी! आप की ही स्तुति कर रहें हैं! शुम्भ तथा निशुम्भ नमक दैत्यों से प्रताड़ित होने के कारण, अपनी रक्षा हेतु आपकी प्रार्थना कर रहे हैं। उस कन्या का प्रादुर्भाव शिव पत्नी शिवा से हुआ एवं वे देवी कौशिकी नाम से विख्यात हुई। देवी कौशिकी ही साक्षात् शुम्भ-निशुम्भ का वध करने वाली सरस्वती हैं तथा उन्हें ही उग्र तारा या महोग्र तारा कहा गया हैं। देवी कौशिकी ने देवताओं से कहा! "तुम लोग निर्भय हो जाओ! मैं स्वतंत्र हूँ! बिना किसी सहायता मैं तुम लोगों का कार्य सिद्ध कर दूंगी तथा तक्षण ही वहाँ से अंतर ध्यान हो गई।"
तदनंतर, एक दिन शुम्भ तथा निशुम्भ के सेवकों ने देवी के स्वरूप को देखा! उनका मनोहर रूप देखकर वे चकित, अचंभित होकर सुध बुध खो बैठे। यह सब जाकर दोनों ने अपने स्वामी को कहा! "एक अपूर्व सुंदरी हिमालय पर रहती हैं तथा सिंह पर सवारी करती हैं।" यह सुनकर शुम्भ ने अपने दूत सुग्रीव को देवी के पास प्रस्ताव देकर भेजा तथा प्रयत्न पूर्वक देवी को ले आने की आज्ञा दी। दूत, देवी के पास गया तथा बोलने लगा! "देवी! दैत्यराज शुम्भ, अपने महान बल तथा पराक्रम के कारण तीनों लोकों में विख्यात हैं, उनका छोटा भाई निशुम्भ भी समान प्रतापी हैं। शुम्भ ने मुझे तुम्हारे पास दूत बना कर भेजा हैं, इसी कारण में यहाँ आया हूँ। सुरेश्वरी! शुम्भ ने जो सन्देश दिया हैं उसे सुनो! मैंने युद्ध में इंद्र आदि देवताओं को पराजित कर, उनसे समस्त रत्नों का हरण कर लिया हैं, यज्ञ में दिया हुआ देव भाग मैं स्वयं ही भोगता हूँ। तुम स्त्रियों में रत्न हो तथा सब रत्नों की शिरोमणि हो, तुम कामजनित रस के साथ मुझे या मेरे भाई को अंगीकार करो।" यह सुनकर कौशिकी देवी ने कहा! "तुम्हारा कथन असत्य नहीं हैं, परन्तु मैंने पूर्व में एक प्रण लिया हैं उसे सुनो! जो मेरा घमंड चूर कर मुझे युद्ध में जीत लेगा, उसी को में अपने स्वामी रूप में वरण कर सकती हूँ, यह मेरा दृढ़ प्रण हैं। तुम शुम्भ तथा निशुम्भ को मेरी यह प्रतिज्ञा बता दो, तदनंतर इस विषय में वह जैसा उचित समझें करें।"
देवी द्वारा इस प्रकार उत्तर पाकर, दूत सुग्रीव वापस शुम्भ के पास चला आया तथा विस्तार पूर्वक सारी बातों से अपने स्वामी को अवगत करवाया। दूत की बातें सुनकर शुम्भ कुपित हो उठा तथा अपने श्रेष्ठ सेनापति धूम्राक्ष को हिमालय पर जाकर, देवी जिस भी अवस्था पर हो! ले आने का निर्देश दिया, फिर उसे भले ही देवी के साथ युद्ध ही क्यों न करना पड़े। दैत्य धूम्रलोचन हिमालय पर जाकर, भगवती भुवनेश्वरी (कौशिकी) से कहने लगा! "मेरे स्वामी के पास चलो नहीं तो में तुम्हें मार डालूँगा।" देवी ने कहा! "युद्ध के बिना मेरा शुम्भ के पास जाना असंभव हैं", यह सुनकर धूम्राक्ष, देवी को पकड़ने के लिये गया, परन्तु देवी ने 'हूँ' के उच्चारण मात्र से उसे भस्म कर दिया, देवी का यह रूप धूमावती नाम से भी प्रसिद्ध हैं। यह समाचार पाकर शुम्भ बड़ा ही कुपित हुआ तथा चण्ड, मुंड तथा रक्तबीज नामक असुरों को देवी के पास भेजा। दानव गणो ने, देवी के सनमुख जाकर शीघ्र ही दैत्य-पति शुम्भको पति बनाने का आदेश दिया, अन्यथा गणो सहित उन्हें मार डालने का भय दिखाया।
देवी ने कहा! "मैं सद भगवान शिव की सूक्ष्म प्रकृति हूँ, फिर किसी दूसरे की पत्नी कैसे बन सकती हूँ? दैत्यों! या तो तुम अपने-अपने स्थानों को लौट जाओ अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो।" देवी के यह वचन सुनकर, दैत्यों ने बड़ा क्रोध किया तथा बोलने लगे! "अब तक हम तुम्हें अबला समझ कर नहीं मार रहे थे, अब युद्ध करो।" युद्ध में देवी ने तीनों वीर दैत्यों को मार डाला तथा अपना उत्तम लोक प्रदान किया। इस प्रकार शुम्भ को जब यह समाचार प्राप्त हुआ, उसने युद्ध के निमित्त दुर्जय गणो को भेजा। कालक, कालकेय, मौर्य, दौर्ह्रद तथा अन्य असुरगण भरी सेना को साथ ले कर, दोनों भाई शुम्भ तथा निशुम्भ रथ पर आरूढ़ हो देवी से युद्ध करने के लिये निकले। हिमालय पर्वत पर खड़ी हुई रमणीय आभूषणों तथा अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित देवी शिवा को देखकर निशुम्भ मोहित हो गया तथा सरस वाणी में बोला! "देवी, तुम जैसे सुंदरी रमणी के शरीर पर मालती के फूल का एक दल भी डाल दिया जाये तो वह व्यथा उत्पन्न कर देती हैं। ऐसे मनोहर शरीर से तुम विकराल युद्ध का विस्तार कैसे कर रही हो? तब चंडिका देवी ने उसे या तो युद्ध करने या वापस चले जाने की सलाह दी। इतना सुनकर सभी महारथी देवी से युद्ध करने लगे, नाना प्रकार से अस्त्र-शस्त्र युद्ध भूमि में चलने लगे। देवी कालिका तथा उनकी सहचरियों ने दैत्यों को मरना शुरू कर दिया तथा देवी के वाहन सिंह ने भी कई दैत्यों का भक्षण कर लिया। दैत्यों के मारे जाने के कारण, रण-भूमि में रक्त की धार, नदिया बहने लगी। घोर युद्ध छिड़ जाने पर, दैत्यों का महान संहार होने लगा, देवी ने विष में बुझे हुए तीखे बाणों से निशुम्भ को मार कर धराशायी कर दिया।
अपने प्रिय भाई निशुम्भ के मारे जाने पर शुम्भ क्रोध से भर गया तथा अष्ट भुजाओं से युक्त हो देवी के पास आया। शुम्भ ने शंख बजाने तथा धनुष की टंकार से आकाश-मंडल गुंज उठा तथा देवी के अटृहास से समस्त असुर संत्रस्त हो गए, देवी ने शुम्भ से कहा! "तुम युद्ध में स्थिरता पूर्वक खड़े रहो।" शुम्भ ने देवी की ओर शिखा से अग्नि ज्वाला निकलती हुई बड़ी भरी शक्ति छोड़ी, देवी एक-एक उल्का से शुम्भ की शक्ति को भस्म कर दिया, दोनों के द्वारा चलाये हुए बाणों को एक दूसरे ने काट दिया। तत्पश्चात, चंडिका ने त्रिशूल से शुम्भ पर प्रहार किया, जिससे वह पृथ्वी पर गिर गया। शूल के आघात से होने वाली व्यथा को सहकर, शुम्भ ने १० हजार भजायें धारण कर ली तथा चक्र द्वारा देवी के वाहन सिंह तथा देवी पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया; देवी ने खेल-खेल में उन चक्रों को विदीर्ण कर दिया। तदनंतर, देवी ने त्रिशूल के प्रहार से असुर शुम्भ को मार गिराया। शुम्भ तथा निशुम्भ दैत्य का वध करने वाली शक्ति साक्षात सरस्वती ही थीं।