आध्यात्मिक साधना की एक विशेष पद्धति, ! तन्त्र !

आगम या तन्त्र

adhya-shakti

आगम और तन्त्र शब्द सामान्यतः पर्यायवाची बनकर व्यवहार में प्रचलित हैं। किन्तु शब्दशक्ति के स्वारस्य और गौरवभावना की दृष्टि में आगम शब्द अपना विशेष महत्त्व रखता हैं, तथा तन्त्र शब्द की तुलना में यह कई अधिक व्यापक और ह्रदयगृही हैं।

यामल में आगम का शब्दार्थ इस प्रकार हैं :-
“आगतं शिववक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजामुखे।
मतं श्रीवासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते।।“

वाचस्पति मिश्र ने तत्त्वविशारदी में आगम की व्याख्या की हैं :-
“आगच्छन्ति बुद्धिमारोहन्ति यस्माद अभ्युदयनि:श्रेयसोपाया:
स आगम:।।“

महाकवि कालिदास ने भी आगम को श्रय और महत्त्व दिया हैं :-
“बहुघाप्यागमेर्भिन्ना: पन्थान: सिद्धिहेत्तव:।“

वाराही तन्त्र में आगम के स्वरूप और उसकी इतिकर्तव्यता का परिचय दिया गया हैं :-
“सिद्धं सिद्धै: प्रमाणैस्तु हितं चात्र परत्र च।
आगमः शास्त्रमाप्तानामाप्तास्तत्वार्थवेदिना:।।“
‘सृष्टिश्च प्रलयश्चेव देवतानां तथार्चनम्।
साधनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च।।
षट्कर्मसाधनं चैव ध्यानयोगश्चतुर्विद्ध:।
सप्तभिर्लक्षणेर्युक्तमागमं तं विदुर्बुद्धा: ।।‘

तात्पर्य यह हैं कि राग द्वेष से मुक्त पुरुषों द्वारा उपदिष्ट लोक एवम् परलोक में हित कर, प्रमाणसिद्ध शास्त्र आगम कहलाता हैं। इसमें सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सब मंत्रों के साधन और पुरश्चरण, षट्कर्म (शान्ति, वशीकरण, स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण) का साधन और ध्यानयोग का निरूपण किया गया हैं।

आगमशास्त्र या तन्त्र का उद्देश्य।

आगमशास्त्र या तन्त्र का उद्देश्य सर्वसाधारण मनुष्य को उसकी अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार सुगम रीति से अपेक्षाकृत थोड़े समय में अभ्युदय (उन्नति) और निःश्रेयस (मोक्ष) का मार्ग प्रशस्त करना हैं। वैदिक रीति-नीति और प्रक्रिया के अत्यन्त दुरूह और कष्टसाध्य होने से, साथ ही त्रेवार्ण को छोड़कर अन्य लोगों का उसमें प्रवेश निषेद होने के कारण उससे लाभ ले पाना सबके लिए संभव न होने से, आगम या तंत्र मार्ग का जन्म हुआ।

आगम और निगम या तन्त्र और वेद आपस में एक-दूसरे के पुरख होने के साथ-साथ परस्पर में ऐसे जुड़े हुए हैं कि उनके कार्य क्षेत्र का विभाजन कर सकना असंभव हैं। वेदों की तरह तन्त्र की सार्वभौम मान्यता हैं, केवल भ्रम या अज्ञान के वशीभूत होकर उनके बारे में किसी प्रकार का संदेह करना अनुचित और निन्दनीय हैं।

कूर्मपुराण में भगवतों के मुख से देवतात्मा हिमालय को यह कहना कितना अर्थ रखता हैं।
“ममैवाज्ञा पराशक्तिर्वेदसंज्ञा पुरातनो।
ऋग्यजु:सामरूपेण सर्गादो संप्रवर्तते।।“

अतेव ऊँचें-नीचें, मनगढ़ंत तर्कों के सहारे आगमोक्त गूढ़ तत्वों के विषय में किसी प्रकार की विपरीत धारणा को आश्रय देना शास्तसम्मत नहीं माना गया हैं।

तांत्रिक साधनाओ या तांत्रिक पद्धति से साधना का महत्व।

adhya-shakti

तंत्र! अलौकिक शक्तियों से युक्त तथा सार्वभौमिक ज्ञान से सम्बद्ध, एक प्रकार विद्या प्राप्ति की पद्धति हैं, जो महान ज्ञान का भंडार हैं। आदि काल से ही समस्त हिन्दू शास्त्र! महान ज्ञान तथा दर्शन का भंडार रहा हैं तथा पांडुलिपि के रूप में लिपि-बद्ध हैं एवं स्वतंत्र ज्ञान के श्रोत हैं। बहुत से ग्रंथों की पाण्डुलिपि प्रायः लुप्त हो चुकी हैं या जीर्ण अवस्था में हैं। बहुत से ग्रंथों में कुछ ऐसे ग्रंथों का नाम प्राप्त होता हैं, जो आज लुप्त हो चुके हैं।

तंत्र का शाब्दिक अर्थ।

तंत्र का सर्वप्रथम अर्थ ऋग्-वेद से प्राप्त होता हैं, जिसके अनुसार यह एक ऐसा करघा हैं जो ज्ञान को बढ़ता हैं। जिसके अंतर्गत, भिन्न-भिन्न प्रकार से ज्ञान प्राप्त कर, बुद्धि तथा शक्ति दोनों को बढ़ाया जाता हैं। तंत्र के सिद्धांत आध्यात्मिक साधनाओं, रीति-रिवाजों के पालन, भैषज्य विज्ञान, अलौकिक तथा पारलौकिक शक्तिओं की प्राप्ति हेतु, काल जादू-इंद्र जाल, अपने विभिन्न कामनाओं के पूर्ति हेतु, योग द्वारा निरोग रहने, ब्रह्मत्व या मोक्ष प्राप्ति हेतु, वनस्पति विज्ञान, सौर्य-मण्डल, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष विज्ञान, शारीरिक संरचना विज्ञान इत्यादि से सम्बद्ध हैं या कहे तो ये सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्ति का भंडार हैं। हिन्दू धर्मों के अनुसार हजारों तंत्र ग्रन्थ हैं, परन्तु काल के दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप कुछ ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं। तंत्र का एक अंधकार युक्त भाग भी हैं, जिसके अनुसार हानि से संबंधित क्रियाओं का प्रतिपादन होता हैं। परन्तु यह संपूर्ण रूप से साधक के ऊपर ही निर्भर हैं की वह तंत्र पद्धति से प्राप्त ज्ञान का किस प्रकार से उपयोग करता हैं।

कामिका तंत्र के अनुसार, तंत्र शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं पहला 'तन' तथा दूसरा 'त्र'। 'तन' शब्द बड़े पैमाने पर प्रचुर मात्रा में गहरे ज्ञान से हैं तथा 'त्र' शब्द का अर्थ सत्य से हैं। अर्थात प्रचुर मात्र में वह ज्ञान जिसका सम्बन्ध सत्य से है! वही तंत्र हैं। तंत्र संप्रदाय अनुसार वर्गीकृत हैं, भगवान विष्णु के अनुयायी! जो वैष्णव कहलाते हैं, इनका सम्बन्ध 'संहिताओं' से हैं तथा शैव तथा शक्ति के अनुयायी! जिन्हें शैव या शक्ति संप्रदाय के नाम से जाना जाता हैं, इनका सम्बन्ध क्रमशः आगम तथा तंत्र से हैं। आगम तथा तंत्र शास्त्र, भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप से अस्तित्व में आये हैं तथा इनके गणो द्वारा लिपि-बद्ध किये गए हैं। ब्रह्मा जी से सम्बंधित तंत्रों को 'वैखानख' कहा जाता हैं।

तंत्र के प्रमुख विचार तथा विभाजन।

तंत्रो के अंतर्गत चार प्रकार के विचारों या उपयोगों को सम्मिलित किया गया हैं।
१. ज्ञान, तंत्र ज्ञान के अपार भंडार हैं।।
२. योग, अपने स्थूल शारीरिक संरचना को स्वस्थ रखने हेतु।।
३. क्रिया, भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाले देवी-देवताओं से सम्बंधित पूजा विधान।।
४. चर्या, व्रत तथा उत्सवों में किये जाने वाले कृत्यों का वर्णन।

इनके अतिरिक्त दार्शनिक दृष्टि से तंत्र तीन भागों में विभाजित हैं १. द्वैत २. अद्वैत तथा ३. द्वैता-द्वैत।

वैचारिक मत से तंत्र शास्त्र चार भागों में विभक्त है; १. आगम २. यामल ३. डामर ४. तंत्र।

प्रथम तथा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ माने जाते हैं! आगम वे ग्रन्थ हैं जो भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप के कारण अस्तित्व में आये हैं तथा भगवान विष्णु द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। भगवान शिव द्वारा कहा गया तथा पार्वती द्वारा सुना गया! आगम नाम से जाना जाता हैं; इसके विपरीत पार्वती द्वारा बोला गया तथा शिव जी के द्वारा सुना गया निगम के नाम से जाना जाता हैं। इन्हें सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा सुना गया हैं तथा उन्होंने ही आगम-निगमो को मान्यता प्रदान की हैं। भगवान विष्णु के द्वारा गणेश, गणेश द्वारा नंदी तथा नंदी द्वारा अन्य गणो को इन ग्रंथों का उपदेश दिया गया हैं।

आगम ग्रंथों के अनुसार शिव जी पंच-वक्त्र हैं, अर्थात इनके पाँच मस्तक हैं; १. ईशान २. तत्पुरुष ३. सद्योजात ४. वामदेव ५. अघोर। शिव जी के प्रत्येक मस्तक भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तिओं के प्रतीक हैं; क्रमशः सिद्धि, आनंद, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया हैं।

तंत्र : तांत्रिक ग्रन्थ देवी पार्वती तथा भगवान शिव के परस्पर वार्तालाप के कारण प्रतिपादित हुए हैं। पार्वती द्वारा कहा गया तथा शिव जी द्वारा सुना गया! निगम ग्रन्थ नाम से जाना जाता हैं तथा शिव जी द्वारा बोला गया तथा देवी पार्वती द्वारा सुना गया! आगम ग्रंथ की श्रेणी में आता हैं; तथा यह सभी ग्रन्थ! तंत्र, रहस्य, अर्णव इत्यादि नाम से जाने जाते हैं। तंत्र मुख्यतः शिव तथा शक्ति से सम्बंधित हैं, इन्हीं से अधिकतर तंत्र ग्रंथों की उत्पत्ति हुई हैं। ऐसा नहीं है कि तंत्र ग्रंथों के अंतर्गत विभिन्न साधनाओं, पूजा पथ का ही वर्णन हैं। तंत्र अपने अंदर समस्त प्रकार का ज्ञान समाहित किया हुए हैं, इसी कारण ऋग्-वेद में तंत्र को ज्ञान का करघा कहा गया हैं, जो बुनने पर और बढ़ता ही जाता हैं।

तंत्र पद्धति में शैव, शाक्त, वैष्णव, पाशुपत, गणापत्य, लकुलीश, बौद्ध, जैन इत्यादि सम्प्रदायों का उल्लेख प्राप्त होता हैं, परन्तु शैव तथा शाक्त तंत्र ही जन सामान्य में प्रचलित हैं। यह दोनों तंत्र मूल रूप से या प्रकारांतर में एक ही हैं, केवल मात्र इनके नाम ही भिन्न हैं; ज्ञान भाव! शैव-तंत्र का मुख्य उद्देश्य हैं, वही क्रिया का वास्तविक निरूपण शाक्त तंत्रों में होता हैं। शैवागम या शैव तंत्र भेद, भेदा-भेद तथा अभेद्वाद के स्वरूप में तीन भागों में विभक्त हैं। भेद-वादी! शैवागम शैव सिद्धांत नाम जन सामान्य में विख्यात हैं, वीर-शैव को भेदा-भेद नाम से तथा अभेद्वाद को शिवाद्वयवाद नाम से जाने जाते हैं। माना जाता हैं कि समस्त प्रकार के शिव सूत्रों का उद्भव स्थल हिमालय कश्मीर में ही हैं।

मंत्र : देवता का विग्रह मंत्र के रूप में उपस्थित रहता हैं। देवताओं के तीन रूप होते हैं १. परा २. सूक्ष्म ३. स्थूल, सामान्यतः मनुष्य सर्वप्रथम स्थूल रूप की उपासना करते हैं तथा इसके सहारे वे सूक्ष्म रूप तक पहुँच जाते हैं। तंत्रों में अधिकतर कार्य मन्त्रों द्वारा ही होता हैं।

कुलगुरु से संपर्क करें।

mediation-yoga

तंत्रोक्त समस्या समस्या साधन और साधनाओं हेतु संपर्क करें।

Whatsapp & Call : +919404999909

e-mail : info@kulguru.org