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साधक, योगी और सिद्ध कौन?

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“साधु तिष्ठे नाभि में उरु तिष्ठे अर्हन्त।
देह तीर्थ के शीर्ष पर तिष्ठे श्री भगवन्त।।“

पहला केंद्र हैं नाभि, दूसरा केंद्र हैं हृदय और तीसरा केंद्र हैं मस्तिष्क। पहले केंद्र में स्थित होने वाले को साधक, दूसरे केंद्र हैं स्थित होने वाले को योगी और तीसरे केंद्र में स्थित होने वाले को सिद्ध कहते हैं।
भूख, प्यास आदि शारीरिक आवश्यकताओं पर नियन्त्रण रखना, प्राण और अधिकार रखना निरपेक्षक भाव से जीवन व्यतीत करना और सांसारिक वस्तुओं में अनासक्त रहना साधक का लक्षण हैं। ऐसा साधक सूक्ष्म प्राणायाम के द्वारा ऊर्जास्वित करते हैं। इस अवस्था में साधक की स्थित नाभि में होती हैं।

नाभि का पूर्ण रूप से ऊर्जास्वित हो जाने पर साधक हृदय केंद्र की ओर बढ़ता हैं। जो सुख प्राप्त होने पर अपने आप को सुखी नहीं मानता और दुख प्राप्त होने पर दुखी भी नहीं होता, जो इन दोनों अनुभवों से दूर अपने आप में लिन हैं जिस पर सुख-दुःख का प्रभाव नहीं वह योगी हैं। जो पाप पुण्य दोनों को निरर्थक समझता हैं जो दोनों परिस्थिति, परिभाषाओं से मुक्त हैं वह योगी हैं। जो शरीर और संसार को व्यर्थ समझे, दोनों में अनासक्ति रखे वह योगी हैं। ऐसे योगी की स्थिति हृदय में होती हैं।

साधक की साधना “प्राण” की साधना हैं। इसी प्रकार योगी की साधना “मन” की साधना हैं। प्राणायाम द्वारा प्राण की और ध्यान द्वारा मन की साधना होती हैं। ध्यान जब अपनी चरम सीमा पर पहुँच कर समाधि में परिवर्तित हो जाता हैं। इसे परम अवस्था कहते हैं और इस अवस्था में साधक, योगी की स्थिति मस्तिष्क में जिस स्थान पर होती हैं। वह सोम चक्र हैं। सोम चक्र में स्थित को उपलब्ध होने वाले की साधना आत्मा की साधना हैं। आत्म साधना की उपलब्धि ही सिद्धावस्था हैं। सिद्धगण, राग-द्वेष, पाप-पुण्य, सुख-दुख, आदि सभी विकारों से युक्त होकर अपनी आत्मा में लिन रहते हैं, यही मानव जीवन का सर्वोच्च पद हैं।

THEORY AND PRACTICE OF TANTRA

tantra

Tantriks devote this whole life and energy to the fearless investigation of truth under the directions of what are considered to be the greatest teachers in the world, the initiated undergoes a course of tanning whish modifies his organization from a Psychological as well as Psychological point of view, If the imagination be dseased, it is with a sudden jerk, restored to the equilibrium.

“The method of the Tantrik is to test everything to its final analysis and receive a truth nothing to whose entity can be seen with absolute certainty with this knowledge. Tantrik literature is presented to the public in the sincere belief that is will do good in the hope that it will enable all to perceive and to feel more deeply, certain things which, neglected, constitute the cause of lasting sorrow amongst those that should be happy, the Tantra itself, is bold. But its boldness is tis beauty for it is the boldness of chastity of a lofty and tender morality for which we must drop pride and speak of things as they are religious in its highest sense as every man sees it, is to him not only a rule of actions, but which he lives and progress, which he must die and past into the mysterious realms of a future life. It is the study and consideration of the most ancient and profound religious that the attention on reverent conscientious minds is invited. Those who are at liberty to develop themselves freely with seldom molest themselves about the opinions of the seers. Mystic philosophers do not clash but arrive at like conclusions by different routes and by the exercise of different faculties of mind Carl.